
ज़िन्दगी की धूप से छांव की उम्मीद की थी,
बस यही गलती थी कि नासूर को समझी नहीं थी।
वक्त बीता जा रहा था; लत्रड़खड़ाते चल रही थी।
ज़िन्दगी के; कदम से कदम मिला कर चल रही थी।
क्या कहूं हालात उनसे;इन्सानियत जिनमें नहीं थी,
बस यही गलती थी कि नासूर को समझी नहीं थी।
टूटकर संभली हमेशा;हालात से भी जूझती थी,
फिर भी सदा ही वक्त ने;हर कदम ली है परीक्षा।
हालात से मज़बूत होकर लौह सम् दॄढ़ हो गई थी,
ज़िन्दगी की थूप से छांव की उम्मीद की थी।
ह्रदय- शब्दकोश से हर ह़र्फ़ को मै खोजती थी,
शून्य उस आकाश में पहचान अपनी ढूंढ़ती थी।
दौड़कर के चहुं दिशि;अस्तित्व की तलाश में थी,
ज़िन्दगी की धूप में छांव की उम्मीद की थी ।
आघात की हर वेदना की टीस को मैं सह रही थी।
ज़िन्दगी की धूप से छांव की उम्मीद की थी।
रश्मि पाण्डेय
बिन्दकी जिला-फतेहपुर
(उत्तर प्रदेश) भारत